Supreme Court ने छत्तीसगढ़ के राजनंदगांव जिले में एक नाबालिग लड़की से बलात्कार के मामले में दोषी ठहराए गए दीपक कुमार साहू की अपील को खारिज कर दिया है। 5 अगस्त 2025 को दिए गए फैसले में न्यायमूर्ति एन.वी. अंजारिया और न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की पीठ ने हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा। इस मामले में दोषी को आईपीसी की धारा 376(2) के तहत 10 साल की सश्रम कारावास और 1,000 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई है। यह फैसला पॉस्को एक्ट और बलात्कार के मामलों में पीड़िता की गवाही की विश्वसनीयता पर महत्वपूर्ण टिप्पणियां करता है। नाबालिगों के खिलाफ यौन अपराधों में पॉस्को एक्ट की भूमिका को मजबूत करता है। समाज में महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा पर जोर देते हुए, कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में पीड़िता की आवाज को दबाया नहीं जाना चाहिए। आरोपी की अपील खारिज होने से न्याय व्यवस्था में विश्वास बढ़ा है।
मामले की पृष्ठभूमि और घटना का विवरण
यह मामला अप्रैल 2018 का है, जब छत्तीसगढ़ के राजनंदगांव जिले में एक 15 वर्षीय नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार की घटना घटी। अभियोजन पक्ष के अनुसार, 3 अप्रैल 2018 को दोपहर करीब 12 बजे पीड़िता अपने 11 वर्षीय छोटे भाई मयंक के साथ घर पर अकेली थी। उसके माता-पिता परिवार में एक मौत होने के कारण गांव करेटी में अंतिम संस्कार में शामिल होने गए थे। आरोपी दीपक कुमार साहू, जो पड़ोस में रहता था, घर में घुस आया। उसने पीड़िता के भाई को चबाने वाला तंबाकू लाने के बहाने बाहर भेज दिया। जैसे ही भाई बाहर गया, आरोपी ने पीड़िता का मुंह दबाया, उसे घर के बरामदे में रखे खाट पर लिटाया और उसके साथ जबरन यौन संबंध बनाया।
जब पीड़िता का भाई तंबाकू लेकर वापस लौटा, तो आरोपी को देखकर वह भाग गया। भागते हुए आरोपी ने पीड़िता को धमकी दी कि वह किसी को कुछ न बताए। घटना के तुरंत बाद पीड़िता पड़ोस में अपनी चचेरी बहन के घर गई और उसे पूरी घटना बताई। बहन के मोबाइल से पीड़िता ने अपने चचेरे भाई को फोन किया, जो माता-पिता के साथ करेटी गांव गया था। चचेरे भाई ने तुरंत पीड़िता के माता-पिता को सूचित किया, जो घर लौट आए। घर पहुंचकर पीड़िता ने माता-पिता को पूरी घटना बताई और पुलिस में शिकायत दर्ज कराई गई। एफआईआर (एक्स. पी-08) दर्ज हुई, और मामले की जांच शुरू हुई।
पुलिस ने पीड़िता का मेडिकल परीक्षण कराया, उसका बयान धारा 164 सीआरपीसी के तहत दर्ज किया गया। आरोपी को आईपीसी की धारा 450 (घर में घुसकर अपराध करने), धारा 376(2) (नाबालिग से बलात्कार) और पॉस्को एक्ट की धारा 4 के तहत दोषी ठहराया गया। स्पेशल कोर्ट (एससी/एसटी कोर्ट) राजनंदगांव ने 2018 में दोषी को सजा सुनाई, जिसे छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने 22 सितंबर 2023 को बरकरार रखा। अब सुप्रीम कोर्ट ने अपील खारिज कर दी है।

पीड़िता की गवाही और गवाहों के बयान: सुप्रीम कोर्ट की समीक्षा
सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में पीड़िता की गवाही को प्रमुख आधार माना। पीड़िता (पीडब्ल्यू-2) ने ट्रायल कोर्ट में बयान दिया कि वह घर पर भाई को खाना परोस रही थी, तभी आरोपी घर में घुसा। उसने भाई को बाहर भेजा और उसके साथ जबरन बलात्कार किया। पीड़िता ने बताया कि भाई के लौटने पर आरोपी भाग गया। उसके बाद वह दुष्यंतिन के घर गई और फोन से परिवार को सूचित किया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पीड़िता की गवाही स्पष्ट, सुसंगत और प्राकृतिक है, जो विश्वास योग्य है।
पीड़िता के भाई (पीडब्ल्यू-9), जो 11 साल का बच्चा था, ने भी गवाही दी। उसने कहा कि आरोपी ने उसे तंबाकू लाने भेजा, और लौटने पर उसने आरोपी को बहन का मुंह दबाते और खाट पर लिटाते देखा। दोनों बिना कपड़ों के थे। सुप्रीम कोर्ट ने बच्चे की गवाही को तर्कसंगत और पीड़िता की गवाही से मेल खाता पाया। चचेरी बहन (पीडब्ल्यू-10) और चचेरे भाई (पीडब्ल्यू-14) ने भी पीड़िता के बयान की पुष्टि की कि घटना के बाद फोन से सूचना दी गई।
पीड़िता की मां (पीडब्ल्यू-1) और पिता (पीडब्ल्यू-3) ने गवाही दी कि वे करेटी गांव में थे, और फोन से सूचना मिलने पर घर लौटे। बेटी ने उन्हें बताया कि आरोपी ने घर में घुसकर बलात्कार किया। सुप्रीम कोर्ट ने इन गवाहों के बयानों को सुसंगत पाया और कहा कि मामूली असंगतियां (जैसे भाई के बयान में छोटी-मोटी भिन्नताएं) को नजरअंदाज किया जाना चाहिए, क्योंकि वे मामले की जड़ को प्रभावित नहीं करतीं।
मेडिकल सबूत और कानूनी दलीलें
आरोपी की ओर से दलील दी गई कि मेडिकल रिपोर्ट में बलात्कार की पुष्टि नहीं है, क्योंकि पीड़िता के गुप्तांगों पर कोई बाहरी चोट नहीं थी। डॉ. आर.के. पाशी (पीडब्ल्यू-11) और ब्लॉक मेडिकल ऑफिसर डॉ. किरण (पीडब्ल्यू-17) ने गवाही दी कि हाइमन फटा हुआ था, लेकिन ठीक हो रहा था, और कोई बाहरी चोट या खरोंच नहीं थी। आरोपी को यौन संबंध बनाने में सक्षम पाया गया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मेडिकल सबूत की कमी पीड़िता की विश्वसनीय गवाही को खारिज करने का आधार नहीं बन सकती।
फैसले में कई पुराने मामलों का हवाला दिया गया। स्टेट ऑफ पंजाब बनाम गुरमीत सिंह (1996) में कहा गया कि नाबालिग के मामले में सहमति का सवाल नहीं उठता, और चोट की अनुपस्थिति घटना को झुठला नहीं सकती। स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश बनाम मंगा सिंह (2019) में बलात्कार के मामलों में पीड़िता की अकेली गवाही पर्याप्त मानी गई, अगर वह विश्वास योग्य हो। लोक मल बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश (2025) में दोहराया गया कि चोट की अनुपस्थिति हमेशा घातक नहीं होती।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बलात्कार के मामलों में पीड़िता की गवाही को संदेह की नजर से नहीं देखा जाना चाहिए। वह अपराध की शिकार है, न कि सह-अपराधी। आईपीसी की धारा 375 के अनुसार, थोड़ी-सी भी प्रवेश बलात्कार माना जाता है, भले हाइमन पूरी तरह फटा न हो। आरोपी की दलील कि पीड़िता नाबालिग नहीं थी, को खारिज किया गया। पीड़िता की 8वीं कक्षा की मार्कशीट से जन्मतिथि 9 अक्टूबर 2002 साबित हुई, जिससे घटना के समय उम्र 15 साल 5 महीने 24 दिन थी। माता-पिता और जांच अधिकारी (पीडब्ल्यू-18) ने इसकी पुष्टि की।
ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को आईपीसी धारा 450 के तहत 5 साल की सजा और 500 रुपये जुर्माना, पॉस्को धारा 4 के तहत सजा, और धारा 376(2) के तहत 10 साल की सजा सुनाई। चूंकि धारा 376(2) की सजा ज्यादा कड़ी है, वही लागू की गई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष ने मामला संदेह से परे साबित किया। आरोपी की निर्दोषता का सिद्धांत खारिज किया गया, क्योंकि कोई ठोस सबूत नहीं था।
फैसले में बलात्कार को केवल शारीरिक हमला नहीं, बल्कि पीड़िता की पूरी व्यक्तित्व को नष्ट करने वाला अपराध बताया गया। स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम एन.के. (2000) में कहा गया कि अनुचित बरी समाज में भेड़ियों को बढ़ावा देती है। गुरमीत सिंह मामले में बलात्कार की मनोवैज्ञानिक हानि पर जोर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पीड़िता की गवाही प्राकृतिक और विश्वसनीय है, और उसके बाद का व्यवहार (परिवार को सूचित करना) सामान्य था।
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