जाली दस्तावेज और चुनाव | Rajasthan High Court ने चुरू विधायक हरलाल सहारण मामले में सरकार की मुकदमे वापसी की याचिका को किया खारिज

Published on: 23-08-2025
राजस्थान हाईकोर्ट

Rajasthan High Court ने एक बार फिर साबित कर दिया कि सियासी रसूख के सामने भी कानून का डंडा बराबर चलता है। चुरू के विधायक हरलाल सहारण के खिलाफ जाली दस्तावेजों के मामले में राज्य सरकार की मुकदमा वापस लेने की याचिका को जोधपुर हाईकोर्ट ने सिरे से खारिज कर दिया। यह मामला, जिसमें हरलाल सिंह पर 2015 के जिला परिषद चुनाव में जाली 10वीं की मार्कशीट और प्रमाणपत्र जमा करने का आरोप है, न केवल कानूनी बल्कि सियासी हलकों में भी तमाशे की तरह उभरा है। कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि “मुकदमा वापसी यांत्रिक रूप से नहीं हो सकती, यह सार्वजनिक न्याय और हित के लिए होनी चाहिए।” इस फैसले ने सियासी गलियारों में हलचल मचा दी है, क्योंकि यह सवाल उठाता है कि क्या व्यवस्था के सर्कस में जनप्रतिनिधियों को आसानी से छूट मिल सकती है?

मामले की रिपोर्ट 2019 में हुई, जब चिमना राम नामक शिकायतकर्ता ने चुरू कोतवाली थाने में शिकायत दर्ज की। आरोप था कि हरलाल सहारण ने जनवरी 2015 में चुरू जिला परिषद के वार्ड नंबर 16 से सदस्य पद के लिए नामांकन दाखिल किया और अपनी शैक्षणिक योग्यता के तौर पर 10वीं पास होने का दावा किया। इसके लिए उन्होंने उत्तराखंड विद्यालय शिक्षा परिषद की कथित मार्कशीट और प्रमाणपत्र पेश किए, जो बाद में जाली पाए गए। पुलिस जांच में खुलासा हुआ कि रोल नंबर 1494335 के तहत कोई छात्र परीक्षा में शामिल नहीं हुआ था, और स्कूल का नाम भी फर्जी था। पुलिस ने भारतीय दंड संहिता की धारा 420 (धोखाधड़ी), 467 (जालसाजी), 468 (जाली दस्तावेज का उपयोग), 471 (जाली दस्तावेज को असली बताना), 193 (झूठी गवाही), और 120-बी (आपराधिक साजिश) के तहत चार्जशीट दाखिल की। यह मामला वर्तमान में सरदारशहर के अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में चल रहा है, जहां आरोप भी तय हो चुके हैं।

राज्य सरकार ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 528 और 360 के साथ सीआरपीसी की धारा 321 के तहत मुकदमा वापस लेने की अनुमति मांगी। सरकार का तर्क था कि एक समिति ने इस मामले को वापस लेने की सिफारिश की है, क्योंकि हरलाल सहारण अब चुरू के विधायक हैं। महाधिवक्ता राजेंद्र प्रसाद ने कोर्ट में दलील दी कि मामले में सबूतों की कमी है और हरलाल ने खुद दस्तावेज नहीं बनाए। उन्होंने कहा, “धारा 120-बी के लिए कम से कम दो आरोपितों की जरूरत है, लेकिन यहां केवल हरलाल के खिलाफ चार्जशीट है, इसलिए आरोप दोषपूर्ण हैं।” इसके अलावा, धारा 193 के तहत अपराध के लिए सीआरपीसी की धारा 340 और आईपीसी की धारा 195 की विशेष प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ। महाधिवक्ता ने यह भी कहा कि शिकायत एक निजी व्यक्ति ने की, न कि चुनाव अधिकारी या सरकारी सेवक ने, जो प्रतिनिधित्व ऑफ द पीपल एक्ट, 1951 की धारा 146 के खिलाफ है। उन्होंने तर्क दिया कि 2015 का चुनाव खत्म हो चुका है, 10वीं की योग्यता हटा दी गई है, और मुकदमा चलाने से कोई सार्वजनिक हित पूरा नहीं होगा। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के नरेंद्र कुमार श्रीवास्तव बनाम बिहार राज्य मामले का हवाला दिया, जिसमें निजी शिकायत पर धारा 193 के तहत संज्ञान को अवैध ठहराया गया था।

वहीं, शिकायतकर्ता की ओर से अधिवक्ता रामावतार सिंह, जस्सा राम, और जय किशन ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए जवाब दिया। उन्होंने बताया कि हरलाल सहारण ने पहले एफआईआर रद्द करने के लिए सीआरपीसी की धारा 482 के तहत याचिका दाखिल की थी, जिसे उन्होंने वापस ले लिया। संज्ञान आदेश के खिलाफ उनकी संशोधन याचिका खारिज हो चुकी है, और आरोप तय करने के आदेश के खिलाफ याचिका लंबित है। उन्होंने जोर दिया कि राज्य स्तरीय समिति ने मुकदमा वापस लेने की सिफारिश बिना किसी तर्क या राय के की, जो प्रक्रियात्मक खामी है। इसलिए, उन्होंने याचिका खारिज करने की मांग की।

‘कोई आरोपित विधानसभा का सदस्य है, यह उनकी सार्वजनिक छवि का प्रमाण नहीं’: हाईकोर्ट

18 अगस्त 2025 को सुनवाई के बाद कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा और 21 अगस्त 2025 को जस्टिस भुवन गोयल और जस्टिस इंदरजीत सिंह की खंडपीठ ने आदेश सुनाया। कोर्ट ने साफ कहा कि “मुकदमा वापसी की अनुमति यांत्रिक रूप से नहीं दी जा सकती। यह उचित न्याय प्रशासन और केवल सार्वजनिक हित में होनी चाहिए।” कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के के. अजित बनाम केरल राज्य मामले का जिक्र किया, जिसमें धारा 321 के तहत मुकदमा वापसी के सिद्धांत तय किए गए हैं। इनमें कहा गया है कि लोक अभियोजक को स्वतंत्र राय बनानी होगी, अदालत की सहमति जरूरी है, और वापसी सबूतों की कमी के अलावा सार्वजनिक न्याय के व्यापक उद्देश्यों के लिए हो सकती है। कोर्ट ने कहा, “अदालत को यह सुनिश्चित करना होगा कि लोक अभियोजक का कार्य अनुचित नहीं है और यह न्याय की प्रक्रिया में हस्तक्षेप का प्रयास नहीं है। आवेदन अच्छी नीयत से, सार्वजनिक नीति और न्याय के हित में होना चाहिए, न कि कानून की प्रक्रिया को बाधित करने के लिए।”

कोर्ट ने देखा कि राज्य सरकार की समिति ने 26 नवंबर 2024 की बैठक में बिना कोई ठोस कारण बताए मुकदमा वापस लेने की सिफारिश की। कोर्ट ने टिप्पणी की, “न तो राज्य सरकार ने लोक अभियोजक की संतुष्टि का कोई रिपोर्ट पेश किया और न ही एफआईआर वापस लेने के आधार/कारण बताए।” कोर्ट ने अब्दुल करीम बनाम कर्नाटक राज्य और राजेंद्र कुमार बनाम स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट मामलों का हवाला दिया, जहां कहा गया कि अदालत को लोक अभियोजक के आधारों की जांच करनी चाहिए और न्याय प्रशासन को दुरुपयोग से बचाना चाहिए।

कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के शैलेंद्र कुमार श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले को उद्धृत करते हुए कहा, “मात्र इसलिए कि कोई आरोपित विधानसभा का सदस्य चुना गया है, यह उनकी सार्वजनिक छवि का प्रमाण नहीं हो सकता। गंभीर अपराधों में मुकदमा वापसी सार्वजनिक हित में नहीं मानी जा सकती, खासकर जब प्रभावशाली लोग शामिल हों।” कोर्ट ने जोर दिया कि हरलाल सिंह ने जाली मार्कशीट के आधार पर नामांकन दाखिल किया, चुनाव जीता, और सार्वजनिक पद पर रहकर सार्वजनिक धन का उपयोग किया। ऐसे में, “ऐसे गंभीर अपराधों, जिसमें सार्वजनिक पद और धन का दुरुपयोग शामिल है, में केवल अच्छी छवि या विधायक होने के आधार पर मुकदमा वापसी उचित नहीं है।”

कोर्ट ने यह भी नोट किया कि चार्जशीट दाखिल होने के बाद संज्ञान लिया गया, आरोप तय हुए, और संज्ञान आदेश के खिलाफ संशोधन याचिका 11 सितंबर 2023 को खारिज हो चुकी है। महाधिवक्ता के आरोप दोषपूर्ण होने के तर्क को कोर्ट ने खारिज करते हुए कहा कि यह लंबित संशोधन याचिका में उठाया जा सकता है। कोर्ट ने महाधिवक्ता की दलीलों पर असंतोष जताया और कहा कि “वे यह साबित नहीं कर सके कि मुकदमा वापसी से सार्वजनिक न्याय, व्यवस्था और शांति के उद्देश्य पूरे होंगे, न ही यह सिद्ध हुआ कि आवेदन अच्छी नीयत से और सार्वजनिक नीति व न्याय के हित में है।”

अंत में, कोर्ट ने याचिका को बिना मेरिट के खारिज कर दिया। यह फैसला न केवल कानूनी बल्कि सियासी दृष्टि से भी एक बड़ा झटका है, क्योंकि यह सवाल उठाता है कि क्या सत्ता और प्रभाव के दम पर व्यवस्था का सर्कस चलाया जा सकता है? यह मामला दर्शाता है कि कैसे जाली दस्तावेजों के जरिए सियासी मंच पर चढ़ने की कोशिशें कानून के कठघरे में आकर धराशायी हो सकती हैं। चुरू जैसे क्षेत्रों में, जहां चुनावी धांधली के आरोप अक्सर सुर्खियां बनते हैं, यह फैसला एक मिसाल कायम करता है।

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