केरल हाईकोर्ट ने नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट (एनआई एक्ट) की धारा 138 के तहत चेक बाउंस केस में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा कि अगर कानूनी नोटिस आरोपी को नहीं बल्कि किसी तीसरे व्यक्ति को दिया गया है और यह साबित नहीं होता कि आरोपी को इसकी जानकारी थी, तो आरोपी को दोषमुक्त किया जाना चाहिए। जस्टिस पी.वी. कुंहिकृष्णन की पीठ ने यह फैसला नूरुद्दीन बनाम केरल राज्य के मामले में सुनाया।
मामला 2017 का है, जब दूसरी याचिकाकर्ता सैनाबा ने आरोप लगाया कि नूरुद्दीन ने उनसे 3 लाख रुपये उधार लिए और चुकाने के बजाय कैथोलिक सीरियन बैंक का एक चेक (नंबर 479097) दिया, जो फंड की कमी के कारण बाउंस हो गया। सैनाबा ने आरोपी को कानूनी नोटिस भेजा, लेकिन उसने भुगतान नहीं किया, जिसके बाद उन्होंने जुडिशियल मैजिस्ट्रेट कोर्ट, अलथुर में केस दायर किया।
ट्रायल कोर्ट ने नूरुद्दीन को दोषी ठहराते हुए 6 महीने की सजा और 3 लाख रुपये जुर्माना लगाया। अपीलीय कोर्ट ने भी इस फैसले को बरकरार रखा, जिसके बाद नूरुद्दीन ने हाईकोर्ट में रिविजन याचिका दायर की।
केरल हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति पी.वी. कुंहिकृष्णन ने चेक डिसओनर के मामले में आरोपी की अपील स्वीकार करते हुए महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं:
“यदि आरोपी नोटिस न मिलने का विरोध करता है, तो यह साबित करने की जिम्मेदारी शिकायतकर्ता पर आ जाती है कि आरोपी को नोटिस की जानकारी थी…उपरोक्त चर्चा के आधार पर, मैं इस न्यायालय द्वारा ‘साजू के मामले’ में दिए गए निर्णय पर पुनर्विचार करने का कोई कारण नहीं देखता…
न्यायालय ने शिकायतकर्ता (PW1) द्वारा पेश किए गए साक्ष्य का विस्तृत अध्ययन किया। मुख्य जिरह के दौरान शिकायतकर्ता से एक विशिष्ट प्रश्न पूछा गया था कि क्या एक्सटीबिट P3 एक कानूनी नोटिस नहीं था और क्या यह आरोपी को प्राप्त नहीं हुआ था। शिकायतकर्ता ने इससे इनकार किया, लेकिन एक्सटीबिट P5 (पोस्टल स्वीकृति पत्र) के अनुसार, नोटिस ‘अमीना’ नामक व्यक्ति को प्राप्त हुआ था। पुनः-जिरह में शिकायतकर्ता ने बयान दिया कि नोटिस आरोपी के सही पते पर भेजा गया था और एक्सटीबिट P5 के अनुसार, इसे आरोपी की माँ ‘अमीना’ ने प्राप्त किया था। हालाँकि, आरोपी की ओर से क्रॉस-एग्जामिनेशन में PW1 ने इस सुझाव को खारिज कर दिया कि ‘अमीना’ उनकी (शिकायतकर्ता की) बहन थी। लेकिन, उन्होंने केवल यही कहा कि नोटिस भेजा गया था, और उनके पास यह साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं था कि आरोपी को ‘अमीना’ द्वारा नोटिस प्राप्त होने की जानकारी थी। जब तक यह साबित नहीं हो जाता कि आरोपी को नोटिस की जानकारी थी, इस न्यायालय को यह नहीं माना जा सकता कि नोटिस आरोपी को सर्व किया गया था।”
हाईकोर्ट की मुख्य टिप्पणियां
हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि “धारा 138(बी) के तहत नोटिस आरोपी को ही दिया जाना चाहिए। अगर यह किसी तीसरे व्यक्ति को दिया जाता है और यह साबित नहीं होता कि आरोपी को इसकी जानकारी थी, तो यह कानूनी रूप से मान्य नहीं होगा।”
कोर्ट ने सजु बनाम शालीमार हार्डवेयर्स (2025 केरल HC 719) के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि “अगर नोटिस आरोपी के रिश्तेदार को दिया गया है, लेकिन यह साबित नहीं होता कि आरोपी को इसकी जानकारी थी, तो यह पर्याप्त नहीं है।”
हालांकि, याचिकाकर्ता की ओर से वकील वी.ए. जॉनसन ने तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले विनोद शिवप्पा (2006), सी.सी. अलवी हाजी (2007) और इंडो ऑटोमोबाइल्स (2008) में कहा गया था कि “अगर नोटिस सही पते पर भेजा गया है, तो यह माना जाएगा कि आरोपी को यह मिल गया है, जब तक कि वह यह साबित न कर दे कि उसे नोटिस नहीं मिला।”
लेकिन हाईकोर्ट ने कहा कि “ये फैसले उन मामलों से संबंधित हैं जहां नोटिस वापस आ गया था या आरोपी ने जानबूझकर नोटिस नहीं लिया था। इस मामले में, नोटिस एक तीसरे व्यक्ति (अमीना) को मिला था, और कोई सबूत नहीं है कि आरोपी को इसकी जानकारी थी।”
Connect with us at mystory@aawaazuthao.com