जब अंग्रेजों ने भारतीयों को कॉफी हाउस में प्रवेश से रोका, तब जन्मा Indian Coffee House, जो स्वाद, स्वाभिमान और इतिहास की रोचक कहानी को समेटे हुए है।
हाल ही में ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज हुई मलयालम फिल्म संशयम ने इंडियन कॉफी हाउस की यादें एक बार फिर ताजा कर दी हैं। क्या आपने इंडियन कॉफी हाउस के बारे में सुना है? अगर आप 60 और 70 के दशक में पैदा हुए हैं, तो यह नाम आपके लिए निश्चित रूप से नॉस्टैल्जिया की एक लहर लाता होगा। उन शहरों में, जहां इंडियन कॉफी हाउस की शाखाएं थीं, वहां यह सस्ते और स्वादिष्ट दक्षिण भारतीय व्यंजनों का एक लोकप्रिय अड्डा हुआ करता था। गर्मागरम फिल्टर कॉफी के साथ मसाला डोसा, इडली, वड़ा और अनोखे स्वाद वाले बीटरूट कटलेट का आनंद लेने के लिए दिनभर लोगों का तांता लगा रहता था। सफेद यूनिफॉर्म में सिर पर लाल या हरी धारियों वाली टोपी पहने वेटर्स फुर्ती से आदेशों को पूरा करते हुए मेजों पर व्यंजनों को सजाते थे। लेकिन क्या आपको इस कॉफी हाउस का इतिहास मालूम है? आइए, इसकी कहानी को विस्तार से जानते हैं।
इंडियन कॉफी हाउस की कहानी 17वीं सदी में शुरू होती है, जब सूफी संत बाबा बुदन ने यमन से सात कॉफी बीन्स भारत में लाए और कर्नाटक के चंद्रगिरी पहाड़ियों में इन्हें बोया। यह कॉफी की खेती का प्रारंभ था, जिसे बाद में डच और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने बढ़ावा दिया। 19वीं सदी तक कॉफी दक्षिण भारत में एक महत्वपूर्ण फसल बन चुकी थी। हालांकि, उस समय कॉफी हाउस मुख्य रूप से ब्रिटिश Elite (अभिजात) वर्ग के लिए थे, जहां भारतीयों का प्रवेश वर्जित था। इस भेदभाव के जवाब में, 1936 में कॉफी सेस कमेटी ने मुंबई के चर्चगेट में पहला ‘इंडिया कॉफी हाउस’ खोला, जो भारतीयों के लिए सुलभ था। 1940 के दशक में, ब्रिटिश शासन के दौरान, कॉफी बोर्ड ने देश भर में लगभग 50 कॉफी हाउस स्थापित किए।

हालांकि, 1950 के दशक के मध्य में नीतिगत बदलाव और आर्थिक नुकसान के कारण कॉफी बोर्ड ने इन कॉफी हाउसों को बंद करने का फैसला किया। इस निर्णय से लगभग 850 कर्मचारियों की नौकरियां खतरे में पड़ गईं। यह एक महत्वपूर्ण मोड़ था। उस समय के प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता अयिल्यथ कुट्टियारी गोपालन (ए.के. गोपालन) ने ऑल इंडिया कॉफी बोर्ड लेबर यूनियन के साथ मिलकर इन कर्मचारियों का नेतृत्व किया। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात की, जिन्होंने कर्मचारियों को सहकारी समितियां बनाकर कॉफी हाउस चलाने की सलाह दी। इस सुझाव ने एक नई शुरुआत को जन्म दिया। 19 अगस्त 1957 को बेंगलुरु में पहली इंडियन कॉफी वर्कर्स को-ऑपरेटिव सोसाइटी की स्थापना हुई, और 27 दिसंबर 1957 को दिल्ली में पहला नया इंडियन कॉफी हाउस खोला गया।
1958 तक, यह श्रृंखला पॉन्डिचेरी, त्रिशूर, लखनऊ, नागपुर, जबलपुर, मुंबई, कोलकाता, तलाशेरी और पुणे जैसे शहरों में फैल गई। केरल में दो सहकारी समितियां बनीं: त्रिशूर में 10 फरवरी 1958 को स्थापित इंडिया कॉफी बोर्ड वर्कर्स को-ऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड (नंबर 4227), जिसने 8 मार्च 1958 को त्रिशूर में पहला कॉफी हाउस खोला, और कन्नूर में 2 जुलाई 1958 को स्थापित इंडियन कॉफी वर्कर्स को-ऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड (नंबर 4317), जिसने 7 अगस्त 1958 को तलाशेरी में पहला कॉफी हाउस शुरू किया। इन सहकारी समितियों ने न केवल कर्मचारियों की आजीविका बचाई, बल्कि एक अनोखा मॉडल प्रस्तुत किया, जहां कर्मचारी ही मालिक थे और लोकतांत्रिक ढंग से व्यवसाय का संचालन करते थे।
इंडियन कॉफी हाउस जल्द ही केवल खान-पान की जगह नहीं, बल्कि बुद्धिजीवियों, लेखकों, कवियों, और क्रांतिकारियों का अड्डा बन गया। कोलकाता के कॉलेज स्ट्रीट कॉफी हाउस, जिसकी शुरुआत 1942 में अल्बर्ट हॉल के रूप में हुई, 20वीं सदी के मध्य में सत्यजित राय, अमर्त्य सेन, मृणाल सेन, और अपर्णा सेन जैसे दिग्गजों का पसंदीदा ठिकाना था। यह ‘अड्डा’ सत्रों के लिए प्रसिद्ध था, जहां साहित्यिक और राजनीतिक बहसें घंटों चलती थीं। मन्ना डे का गाना ‘कॉफी हाउस-एर सेई अड्डा-ता‘ इसकी सांस्कृतिक महत्ता को अमर करता है। दिल्ली के कॉनॉट प्लेस में स्थित कॉफी हाउस, जो 1957 में खुला, 1975-77 की इमरजेंसी के दौरान बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं के लिए प्रतिरोध का केंद्र बना। हालांकि, इमरजेंसी के दौरान इसे 15 मई 1976 को बिना पूर्व सूचना के ध्वस्त कर दिया गया, जो एक बड़ा झटका था। बाद में इसे मोहन सिंह प्लेस में फिर से खोला गया।
इंडियन कॉफी हाउस की खासियत इसकी सादगी और सामर्थ्य थी। 35 पैसे में एक कप कॉफी और स्वादिष्ट मसाला डोसा, मटन बिरयानी, और बीटरूट कटलेट जैसे व्यंजन इसे आम लोगों के लिए आकर्षक बनाते थे। यह न केवल भोजन का स्थान था, बल्कि एक सामाजिक और सांस्कृतिक केंद्र था, जहां स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आपातकाल तक के आंदोलनों की रणनीतियां बनीं। केरल में इसके व्यंजनों में बीटरूट का व्यापक उपयोग एक अनोखी पहचान बन गया।
हालांकि, आधुनिक कॉफी चेन्स जैसे स्टारबक्स और कैफे कॉफी डे के उदय ने इंडियन कॉफी हाउस को कड़ी प्रतिस्पर्धा दी। कई शाखाएं आर्थिक तंगी और बदलते समय के साथ बंद हो गईं। उदाहरण के लिए, बेंगलुरु का एम.जी. रोड कॉफी हाउस 2009 में एक कानूनी विवाद के बाद बंद हुआ, लेकिन बाद में चर्च स्ट्रीट में फिर से खुला। 2006 में कोलकाता के कॉलेज स्ट्रीट कॉफी हाउस को वित्तीय संकट का सामना करना पड़ा, लेकिन नियमित ग्राहकों और साहित्यकारों के समर्थन से इसे बचाया गया।
आज, इंडियन कॉफी हाउस की लगभग 500 शाखाएं देश भर में 13 सहकारी समितियों द्वारा संचालित हैं। केरल में सबसे अधिक 51 शाखाएं हैं, जिनमें त्रिशूर और कन्नूर की सहकारी समितियां प्रमुख हैं। जबलपुर की इंडियन कॉफी वर्कर्स को-ऑपरेटिव सोसाइटी 164 शाखाओं और औद्योगिक कैंटीनों का संचालन करती है। कोलकाता, शिमला, इलाहाबाद (प्रयागराज), और दिल्ली जैसे शहरों में इसकी शाखाएं आज भी बुद्धिजीवियों और नॉस्टैल्जिया प्रेमियों को आकर्षित करती हैं।
इंडियन कॉफी हाउस केवल एक रेस्तरां श्रृंखला नहीं है; यह भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास का एक जीवंत स्मारक है। यह सहकारी आंदोलन की ताकत, श्रमिकों की एकता, और कॉफी की एक कप के साथ होने वाली गहन बातचीत की भावना को दर्शाता है। जैसे-जैसे आधुनिक कैफे संस्कृति बढ़ रही है, इंडियन कॉफी हाउस अपनी सादगी, किफायती कीमतों, और ऐतिहासिक महत्व के साथ एक अनोखा स्थान बनाए रखता है। यह उन लोगों के लिए एक समय यात्रा है, जो 60 और 70 के दशक की स्मृतियों को फिर से जीना चाहते हैं, और नई पीढ़ी के लिए एक ऐसी जगह है, जहां वे भारत के समृद्ध अतीत का स्वाद ले सकते हैं।
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