धारा 498A और 377 IPC वाले मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट का अहम फैसला – जानें कब रद्द हो सकता है ऐसा केस

Published on: 14-07-2025
Bombay HC, Nagpur

पति पर थे दहेज और अप्राकृतिक संबंध के आरोप, पर सुलह के बाद हाईकोर्ट ने दी राहत

मुंबई- नागपुर की एक युवती ने शादी के महज 7 महीने बाद ही अपने पति और ससुराल वालों पर दहेज उत्पीड़न और जबरन अप्राकृतिक संबंध बनाने के गंभीर आरोप लगाए थे। लेकिन जब दोनों पक्षों ने आपसी सहमति से तलाक ले लिया और कोर्ट के सामने समझौता कर लिया, तो बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस मामले में दर्ज आपराधिक केस को खारिज करने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया।

जस्टिस एम.एम. नर्लीकर और जस्टिस नितिन डब्ल्यू. संब्रे की खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा कि “जब वैवाहिक विवादों में पार्टियां खुद सुलह कर लें और पीड़ित पक्ष कोर्ट में आरोप वापस लेने के लिए तैयार हो, तो न्यायालय को ऐसे मामलों में आपराधिक कार्यवाही जारी रखने के बजाय समझौते को प्रोत्साहित करना चाहिए।”

यह मामला नागपुर के बेलतरोड़ी पुलिस स्टेशन में 18 दिसंबर 2023 को दर्ज FIR नंबर 737/2023 से जुड़ा है, जिसमें पति अक्षय पाल, उनकी दोनों बहनें और मौसी पर धारा 498-A (दहेज उत्पीड़न), 377 (अप्राकृतिक यौन संबंध) और दहेज निषेध अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया था।

ये है पूरा मामला

नागपुर के बेलतरोड़ी पुलिस स्टेशन में दर्ज FIR नंबर 737/2023 और उससे जुड़े आरोप पत्र को बॉम्बे हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया है। यह मामला पति अक्षय पाल, उनकी बहनें कविता पाल व श्वेता पाल और मौसी राजकुमारी पाली के खिलाफ दहेज उत्पीड़न (धारा 498-A), अप्राकृतिक यौन संबंध (धारा 377) और दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3 व 4 के तहत दर्ज किया गया था। हालांकि, पति-पत्नी के बीच सुलह होने और फैमिली कोर्ट द्वारा तलाक को मंजूरी दिए जाने के बाद हाईकोर्ट ने आपराधिक कार्यवाही को समाप्त करने का निर्णय लिया।

कोर्ट ने अपने महत्वपूर्ण अवलोकनों में कहा, “हालांकि धारा 498-A और 377 IPC तथा दहेज निषेध अधिनियम की धाराएं गैर-समझौता योग्य हैं, लेकिन पार्टियों के बीच स्वैच्छिक समझौता होने और पीड़िता द्वारा कोर्ट में अपनी सहमति दिए जाने के बाद न्याय के हित में इन प्रकरणों को रद्द किया जा सकता है।” यह फैसला जस्टिस एम.एम. नर्लीकर और जस्टिस नितिन डब्ल्यू. संब्रे की खंडपीठ ने सुनाया।

मामले की पृष्ठभूमि यह है कि अक्षय पाल और पीड़िता का विवाह 15 मई 2023 को नागपुर में हुआ था। शादी के कुछ ही दिनों बाद पत्नी ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई कि उसके पति और ससुराल वालों ने उसे दहेज के लिए प्रताड़ित किया। उसने आरोप लगाया कि पति शराब पीता था और उसके साथ जबरन अप्राकृतिक संबंध बनाता था, जिससे उसे चोटें आईं। साथ ही, पति की बहनों और मौसी ने उससे 5 एकड़ जमीन और 2BHK फ्लैट की मांग की। इन आरोपों के आधार पर पुलिस ने केस दर्ज किया और आरोप पत्र कोर्ट में पेश किया गया।

हालांकि, बाद में पति-पत्नी के बीच सुलह हो गई और दोनों ने 1 जुलाई 2025 को फैमिली कोर्ट, नागपुर के समक्ष तलाक के लिए सहमति पत्र दाखिल किया। तलाक डिक्री पास होने के बाद पीड़िता ने हाईकोर्ट में हलफनामा दाखिल कर कहा कि वह आगे इस मामले को नहीं लड़ना चाहती और FIR व आरोप पत्र को रद्द करने के लिए सहमति देती है। कोर्ट ने पीड़िता से सीधे बातचीत कर उसकी स्वैच्छिक सहमति की पुष्टि की।

कोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणियां

अदालत ने अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट के गियान सिंह बनाम पंजाब राज्य (2012) के मामले का हवाला देते हुए कहा, “हाईकोर्ट के पास धारा 482 CrPC के तहत अंतर्निहित शक्तियां हैं, जिनका उपयोग कर वह गैर-समझौता योग्य अपराधों में भी आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर सकता है, अगर पार्टियों के बीच सुलह हो गई हो और न्याय के हित में ऐसा करना जरूरी हो।” कोर्ट ने यह भी कहा कि “वैवाहिक विवादों में, जहां पुनर्मिलन संभव नहीं है, वहां पार्टियों को जल्द से जलड़ मुक्त करना चाहिए ताकि वे अपना जीवन आगे बढ़ा सकें। अन्यथा, लंबी कानूनी लड़ाई उनके जीवन को बर्बाद कर देगी, जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत ‘जीवन के अधिकार’ का उल्लंघन होगा।”

हाईकोर्ट ने आगे टिप्पणी करते हुए कहा, “आजकल वैवाहिक कलह के मामलों में पति के परिवार के जितने भी सदस्य होते हैं, उन सभी के खिलाफ FIR दर्ज करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। ऐसे में, अगर पार्टियां आपसी सहमति से मामला सुलझा लेती हैं, तो कोर्ट को उनकी इस पहल का समर्थन करना चाहिए।” कोर्ट ने यह भी कहा कि “दहेज और पारिवारिक विवादों से जुड़े मामले मूल रूप से निजी प्रकृति के होते हैं, और अगर पार्टियों ने आपस में समझौता कर लिया है, तो आपराधिक कार्यवाही जारी रखना न्याय के हित में नहीं होगा।”

इस तरह, बॉम्बे हाईकोर्ट ने FIR और आरोप पत्र को रद्द करते हुए पति-पत्नी को नया जीवन शुरू करने की छूट दे दी। यह फैसला वैवाहिक विवादों में समझौता होने पर गैर-समझौता योग्य धाराओं में भी कार्यवाही रद्द करने की संभावना को मजबूत करता है, बशर्ते कि समझौता स्वैच्छिक हो और न्यायालय को यह विश्वास हो कि इससे न्याय के हित सर्वोत्तम रूप से सुरक्षित होंगे।

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