Governor Post – भारत में राज्यपाल का पद, जो 26 जनवरी 1950 को संविधान के अनुच्छेद 153 के तहत स्थापित हुआ, आज भी एक जटिल और विवादास्पद विषय बना हुआ है। इसे मूल रूप से केंद्र और राज्यों के बीच संवैधानिक सेतु के रूप में डिजाइन किया गया था, लेकिन समय के साथ यह सत्तारूढ़ दलों का राजनीतिक हथियार, आर्थिक बोझ और औपनिवेशिक मानसिकता का प्रतीक बन गया है। यह लेख राज्यपाल की संवैधानिक भूमिका, शक्तियों, सुविधाओं, आर्थिक लागत, राजनीतिक दुरुपयोग के ऐतिहासिक तथा समकालीन उदाहरणों, सुधार की मांगों और इसकी प्रासंगिकता का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
संवैधानिक भूमिका और शक्तियाँ: एक गहरा अवलोकन
भारतीय संविधान में राज्यपाल का पद केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन बनाए रखने का महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसकी संरचना और शक्तियाँ निम्नलिखित हैं:
- संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 153: प्रत्येक राज्य में एक राज्यपाल होगा; कुछ मामलों में एक व्यक्ति कई राज्यों के लिए नियुक्त हो सकता है (जैसे पंजाब और हरियाणा, या मेघालय और अरुणाचल प्रदेश)।
- अनुच्छेद 154: राज्य की कार्यकारी शक्तियाँ राज्यपाल में निहित हैं, जो सामान्यतः मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करता है, लेकिन कुछ मामलों में स्वविवेक से निर्णय ले सकता है।
- अनुच्छेद 155: राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति, जो वास्तव में केंद्र सरकार की सलाह पर होती है।
- अनुच्छेद 156: कार्यकाल पाँच वर्ष, लेकिन राष्ट्रपति (केंद्र) की इच्छा पर हटाया जा सकता है।
- अनुच्छेद 157: भारतीय नागरिक और न्यूनतम 35 वर्ष की आयु अनिवार्य।
- अनुच्छेद 161: राज्य स्तर के अपराधों में क्षमादान, सजा कम करने, या निलंबित करने की शक्ति।
- प्रमुख शक्तियाँ:
- कार्यकारी: मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की नियुक्ति, प्रशासनिक निगरानी।
- विधायी: विधानसभा सत्र बुलाना, स्थगित करना, या भंग करना; विधेयकों पर हस्ताक्षर, रोकना, या राष्ट्रपति को भेजना (अनुच्छेद 200)।
- न्यायिक: क्षमादान या सजा में कमी (अनुच्छेद 161)।
- विवेकाधीन: संवैधानिक संकट में सरकार गठन, विधेयकों को रोकना, या राष्ट्रपति शासन की सिफारिश (अनुच्छेद 356)।
- विशेष भूमिकाएँ: विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति, केंद्रशासित प्रदेशों में प्रशासक, आपात स्थिति में केंद्र के निर्देश लागू करना।
विवेकाधीन शक्तियाँ, जैसे सरकार गठन या राष्ट्रपति शासन की सिफारिश, अक्सर विवाद का कारण बनती हैं, क्योंकि ये केंद्र के प्रभाव को दर्शाती हैं, जिससे निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं। सुप्रीम कोर्ट के 1994 के एस.आर. बोम्मई और 2016 के नबम रेबिया फैसलों ने स्पष्ट किया कि ये शक्तियाँ संवैधानिक दायरे में होनी चाहिए। बोम्मई मामले में कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति शासन की सिफारिश तथ्यों पर आधारित हो, न कि मनमानी।

सुविधाएँ और आर्थिक लागत: जनता की कीमत पर वैभव
राज्यपालों को मिलने वाली सुविधाएँ और राजभवनों का रखरखाव इस पद को आर्थिक बोझ के रूप में देखने का प्रमुख कारण है:
- सुविधाएँ:
- वेतन: ₹3,50,000 मासिक (2025 तक, केंद्र सरकार के नियमों के अनुसार)।
- आवास: भव्य राजभवन, औपनिवेशिक काल की ऐतिहासिक इमारतें, सैकड़ों कर्मचारियों (निजी सचिव, सुरक्षा गार्ड, रसोइये, माली) के साथ।
- यात्रा: सरकारी विमान, हेलीकॉप्टर, लक्जरी कारें, ड्राइवर, और सुरक्षा; कुछ मामलों में निजी यात्राओं (जैसे गृह नगरी) के लिए भी संसाधन।
- अन्य: मुफ्त चिकित्सा, टेलीफोन, बिजली-पानी, और विशेष प्रोटोकॉल (रेड कार्पेट, सलामी)।
- वार्षिक खर्च:
- प्रति राजभवन: ₹20-30 करोड़ (2019 RTI डेटा); बड़े राज्यों (यूपी, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल) में ₹50-80 करोड़।
- कुल राष्ट्रीय खर्च: ₹1,000-1,200 करोड़ (2021 अनुमान), 2025 में मुद्रास्फीति के साथ ₹1,500 करोड़ तक संभावित।
- उदाहरण:
- लखनऊ राजभवन: 180 एकड़, 200+ कर्मचारी, 2021 में ₹60 करोड़।
- कोलकाता राजभवन: 27 एकड़, औपनिवेशिक वास्तुकला, 2021 में ₹40 करोड़।
- पुडुचेरी राजभवन: छोटा, फिर भी 2020 में ₹15 करोड़।
- आलोचना: भारत जैसे विकासशील देश में, जहाँ विश्व बैंक के 2022-23 आँकड़ों के अनुसार अत्यधिक गरीबी दर 5.3% है, यह खर्च शिक्षा, स्वास्थ्य, या ग्रामीण विकास में उपयोगी हो सकता है। सोशल मीडिया पर इसे “औपनिवेशिक वैभव” और “जनता के धन का दुरुपयोग” कहा जाता है।
संवैधानिक प्रासंगिकता: केंद्र-राज्य संतुलन या अप्रासंगिक अवशेष?
- समर्थकों का दृष्टिकोण:
- संवैधानिक सेतु: संकटों में मध्यस्थता, जैसे सरकार गठन में अस्पष्टता या विधायी गतिरोध।
- प्रशासनिक स्थिरता: छोटे राज्यों (सिक्किम, मेघालय) और केंद्रशासित प्रदेशों (पुडुचेरी, लक्षद्वीप) में केंद्र की निगरानी।
- निष्पक्षता: विधानसभा भंग करना, विधेयकों पर हस्ताक्षर, या सरकार गठन में संवैधानिक निष्पक्षता।
- उदाहरण:
- 1998, बिहार: राबड़ी देवी सरकार के खिलाफ राष्ट्रपति शासन की सिफारिश को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किया, जवाबदेही मजबूत।
- 2005, झारखंड: सैयद सिब्ते रज़ी ने केंद्र-राज्य संतुलन बनाया, हालांकि विवादास्पद।
- 2019, जम्मू-कश्मीर: सत्यपाल मलिक ने अनुच्छेद 370 हटने के बाद स्थिरता सुनिश्चित की।
- राष्ट्रीय संविधान समीक्षा आयोग (2001): पद को फेडरल ढाँचे का हिस्सा माना।
- आलोचकों का दृष्टिकोण:
- औपनिवेशिक अवशेष: ब्रिटिश गवर्नर-जनरल की तर्ज पर, आधुनिक लोकतंत्र में अप्रासंगिक।
- केंद्र का हस्तक्षेप: अनुच्छेद 156 के तहत नियुक्ति और हटाने की शक्ति राज्यों की स्वायत्तता का हनन।
- वैकल्पिक संस्थाएँ: उच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय, निर्वाचन आयोग, और CAG जिम्मेदारियाँ संभाल सकते हैं।
- आधुनिक संदर्भ: सूचना प्रौद्योगिकी के युग में इसकी आवश्यकता कम।

राजनीतिक दुरुपयोग: ऐतिहासिक और समकालीन उदाहरण
राज्यपाल के पद का राजनीतिक दुरुपयोग इसकी निष्पक्षता पर सवाल उठाता है:
- ऐतिहासिक उदाहरण:
- 1959, केरल: ई.एम.एस. नंबूदरीपाद की कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त किया गया, केंद्र के इशारे पर।
- 1977, जनता पार्टी: कांग्रेस द्वारा नियुक्त राज्यपालों को हटाने का प्रयास, सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक ठहराया।
- 1983, जम्मू-कश्मीर: जगमोहन ने फारूक अब्दुल्ला सरकार के खिलाफ राष्ट्रपति शासन की सिफारिश।
- 1984, आंध्र प्रदेश: रामलाल ने एन.टी. रामाराव सरकार को बर्खास्त किया, बाद में रद्द।
- 1996, उत्तर प्रदेश: रोमेश भंडारी की सिफारिश बोम्मई सिद्धांतों पर खारिज।
- 1999, बिहार: विनोद चंद्र पांडे की सिफारिश खारिज।
- हाल के उदाहरण:
- 2014, उत्तराखंड: अज़ीज़ कुरैशी को केंद्र के इशारे पर कार्य न करने के लिए हटाया गया।
- 2016, अरुणाचल प्रदेश: जे.पी. राजखोवा की सिफारिश नबम रेबिया मामले में असंवैधानिक।
- 2018, कर्नाटक: वजुभाई वाला ने बीजेपी को सरकार बनाने का न्योता दिया, येदियुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा।
- 2019, महाराष्ट्र: भगत सिंह कोश्यारी ने रातोंरात फडणवीस को नियुक्त किया, सुप्रीम कोर्ट ने फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया।
- 2020, मणिपुर: नजमा हेपतुल्ला ने अविश्वास प्रस्ताव की अनदेखी की।
- 2022, महाराष्ट्र: कोश्यारी ने उद्धव ठाकरे सरकार के खिलाफ फ्लोर टेस्ट आदेश दिया।
- 2023, तमिलनाडु: आर.एन. रवि ने डीएमके के विधेयकों को रोका, सुप्रीम कोर्ट ने इसे संवैधानिक संकट बताया।
- 2023, केरल: आरिफ मोहम्मद खान ने विश्वविद्यालय नियुक्तियों और विधेयकों को रोका।
- 2024, पश्चिम बंगाल: सी.वी. आनंद बोस पर विधेयकों में देरी और विश्वविद्यालय हस्तक्षेप के आरोप।
- 2025, पंजाब: गुलाबचंद कटारिया की बार बार गृह नगरी उदयपूर की यात्राएँ और जुलाई 2025 की सिरोही-जालोर (राजस्थान) यात्राएँ, जो बाद में रद्द हुईं, पर संसाधन दुरुपयोग का आरोप।
ये उदाहरण दर्शाते हैं कि राज्यपाल अक्सर केंद्र के राजनीतिक एजेंडे का साधन बनता है। सुप्रीम कोर्ट ने बोम्मई (1994), नबम रेबिया (2016), और 2023-2025 के मामलों में मनमानी को सीमित किया।

वफादारी का इनाम: राजनीतिक नियुक्तियाँ
राज्यपाल का पद अक्सर सत्तारूढ़ दलों के लिए वफादार नेताओं को पुरस्कृत करने का साधन बन गया है:
- मार्गरेट अल्वा (कांग्रेस, 2009-2014): राजस्थान, गुजरात, गोवा, उत्तराखंड में नियुक्ति।
- राम नाइक (बीजेपी, 2014-2019): उत्तर प्रदेश में नियुक्ति।
- बंडारू दत्तात्रेय (बीजेपी, 2016-2022): हिमाचल प्रदेश, हरियाणा।
- बनवारीलाल पुरोहित (बीजेपी, 2017-2025): तमिलनाडु, पंजाब, चंडीगढ़।
- जगदीप धनखड़ (बीजेपी, 2019-2022): पश्चिम बंगाल, बाद में उपराष्ट्रपति।
- कमला बेनीवाल (कांग्रेस, 2009-2014): गुजरात, मिज़ोरम।
- वीरेंद्र सिंह (कांग्रेस, 2010-2014): मणिपुर।
- ऐतिहासिक रुझान:
- 1980 के दशक: बी.डी. शर्मा और प्रभुदास पटवारी ने मंत्रिपद हासिल किए।
- 2014-2016: एनडीए ने यूपीए के राज्यपालों (कमला बेनीवाल, शीला दीक्षित) को हटाकर बीजेपी नेताओं को नियुक्त किया।
- आलोचना: यह प्रथा पद की गरिमा को कम करती है। सोशल मीडिया पर इसे “राजनीतिक पुनर्वास केंद्र” कहा जाता है।
संसाधनों का दुरुपयोग: गृह नगरी की यात्राएँ और प्रोटोकॉल
कई राज्यपालों पर निजी, सामाजिक, या राजनीतिक उद्देश्यों के लिए संसाधन दुरुपयोग का आरोप:
- कलराज मिश्र (राजस्थान, 2019-2023): उत्तर प्रदेश की यात्राएँ, 2021 में ₹50 लाख खर्च (RTI)।
- जगदीप धनखड़ (पश्चिम बंगाल, 2019-2022): राजस्थान में बीजेपी आयोजनों के लिए सरकारी विमान।
- आर.एन. रवि (तमिलनाडु, 2021-वर्तमान): 2023 में नागालैंड, दिल्ली यात्राएँ, ₹20 लाख प्रति यात्रा।
- बनवारीलाल पुरोहित (2017-2025): महाराष्ट्र, राजस्थान में गैर-आधिकारिक आयोजन।
- गुलाबचंद कटारिया (2022-वर्तमान पंजाब ): 2023 से लेकर 2025 तक बार बार अपने गृह नगरी उदयपुर के चक्कर और सिरोही-जालोर यात्राएँ (रद्द), ₹15-20 लाख खर्च। ये यात्राएँ जनता के धन का दुरुपयोग करती हैं और निष्पक्षता पर सवाल उठाती हैं।
सुधार या समाप्ति: समय की पुकार

राज्यपाल के पद की प्रासंगिकता पर बहस दशकों से चल रही है:
- प्रमुख सुझाव:
- सरकारिया आयोग (1988):
- नियुक्ति में मुख्यमंत्री से परामर्श।
- गैर-राजनीतिक व्यक्तियों को प्राथमिकता।
- विवेकाधीन शक्तियों के लिए दिशानिर्देश।
- पुंछी आयोग (2010):
- विवेकाधीन शक्तियों को सीमित करना।
- आचार संहिता लागू करना।
- राष्ट्रपति शासन की न्यायिक समीक्षा।
- केरल विधानसभा (2016): पद को औपनिवेशिक अवशेष बताकर समाप्ति का प्रस्ताव।
- सुप्रीम कोर्ट (2023): तमिलनाडु, पंजाब में मनमानी पर टिप्पणी, दिशानिर्देश की माँग।
- सरकारिया आयोग (1988):
- वैकल्पिक मॉडल:
- ऑस्ट्रेलिया: गवर्नर-जनरल की प्रतीकात्मक भूमिका।
- जर्मनी: कोई समकक्ष पद नहीं, संवैधानिक न्यायालय संतुलन बनाता है।
- कनाडा: गवर्नर-जनरल की औपचारिक भूमिका।
- विशेषज्ञ सुझाव:
- जिम्मेदारियाँ उच्च न्यायालयों या निर्वाचन आयोग को सौंपना।
- पद को प्रतीकात्मक बनाना।
- नियुक्ति में संसदीय समिति की मंजूरी।
- ऐतिहासिक माँगें: 1970-1990 में वामपंथी दलों और 2020 में तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल ने सुधार या समाप्ति की माँग की।
- विश्लेषण: सुधार के लिए संवैधानिक संशोधन और सहमति जरूरी। समाप्ति अनुच्छेद 153, 154, 156 में बदलाव माँगती है।
आर्थिक बोझ: औपनिवेशिक मानसिकता का प्रतीक
- ऐतिहासिक संदर्भ: राजभवन (लखनऊ, शिमला, कोलकाता, चेन्नई) औपनिवेशिक वैभव के प्रतीक, रखरखाव महँगा।
- वर्तमान लागत:
- 2021 अनुमान: ₹1,200 करोड़ (RTI)।
- उदाहरण:
- लखनऊ: 180 एकड़, ₹60 करोड़।
- कोलकाता: 27 एकड़, ₹40 करोड़।
- शिमला: ₹25 करोड़।
- लागत में शामिल: रखरखाव, कर्मचारी वेतन, सुरक्षा, आतिथ्य, यात्रा।
- आलोचना: विश्व बैंक (2022-23) के अनुसार 5.3% अत्यधिक गरीबी दर वाले भारत में यह खर्च अनुचित।
- वैकल्पिक उपयोग: राजभवनों को संग्रहालय या कार्यालयों में बदलना, जैसे दक्षिण अफ्रीका में।
- तुलना: ऑस्ट्रेलिया में गवर्नर-जनरल कार्यालय का खर्च ~₹100 करोड़ (2021)।
संवैधानिक आवश्यकता, राजनीतिक बोझ, या समाप्ति का समय?
राज्यपाल का पद केंद्र-राज्य संतुलन में महत्वपूर्ण हो सकता है, लेकिन राजनीतिक दुरुपयोग, आर्थिक बोझ, और औपनिवेशिक अवशेष जैसे दोष इसे विवादास्पद बनाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने मनमानी को सीमित किया है, लेकिन नियुक्ति में पारदर्शिता या प्रतीकात्मक भूमिका जैसे सुधार आवश्यक हैं। जनता को इस बहस में सक्रिय भागीदारी कर फेडरल ढाँचा मजबूत करना चाहिए।