Allahabad High Court ने उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले की एक फैमिली कोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है, जिसमें एक महिला को उसके देवर के साथ विवाह के आधार पर गुजारा भत्ता प्रदान करने का आदेश दिया गया है। कोर्ट ने कहा कि धारा 125 सीआरपीसी के तहत “पत्नी” की परिभाषा को व्यापक और उदार दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए, खासकर उन मामलों में जहां पुरुष और महिला लंबे समय तक पति-पत्नी के रूप में साथ रहे हों। कोर्ट ने यह भी माना कि सख्त विवाह का प्रमाण इस तरह के मामलों में गुजारा भत्ता देने की शर्त नहीं होनी चाहिए। इस मामले में, हाईकोर्ट ने निचली अदालत के 18 अक्टूबर 2023 के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें एक महिला और उसके नाबालिग बच्चों की गुजारा भत्ता याचिका को खारिज कर दिया गया था। कोर्ट ने मामले को दोबारा सुनवाई के लिए निचली अदालत को भेजा और महिला को अंतरिम रूप से 8,000 रुपये मासिक गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया।
मामला क्रिमिनल रिवीजन नंबर 6354/ 2023 से संबंधित है, जिसमें याचिकाकर्ता (महिला और उसके दो नाबालिग बच्चे) ने अपने देवर गौरव के खिलाफ गुजारा भत्ता की मांग की थी। याचिकाकर्ता ने दावा किया कि उसके पहले पति (गौरव के बड़े भाई) की मृत्यु के बाद उसने 15 जून 2020 को हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार गौरव से दूसरा विवाह किया था। याचिका में कहा गया कि गौरव ने उसे और उसके बच्चों को दहेज की मांग पूरी न होने पर प्रताड़ित किया और 22 नवंबर 2021 को घर से निकाल दिया। इसके अलावा, गौरव ने कथित तौर पर एक अन्य महिला से दूसरा विवाह कर लिया, जो पहले से ही किसी और की पत्नी थी। याचिकाकर्ता ने यह भी दावा किया कि वह और उसके बच्चे आर्थिक तंगी में हैं, जबकि गौरव उत्तर प्रदेश पुलिस में कॉन्स्टेबल के रूप में कार्यरत हैं और उनकी मासिक आय लगभग 70,000 रुपये है।
हाईकोर्ट ने अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट के चनमुनियां बनाम वीरेंद्र कुमार सिंह कुशवाहा (2011) 1 SCC 141 मामले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था: “ऐसे मामलों में जहां पुरुष और महिला लंबे समय तक पति-पत्नी के रूप में साथ रहते हैं, भले ही उन्होंने वैध विवाह की कानूनी औपचारिकताएं पूरी न की हों, पुरुष को महिला को गुजारा भत्ता देने के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। पुरुष को कानूनी खामियों का फायदा उठाकर वास्तविक विवाह के लाभ लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, बिना इसके कर्तव्यों और दायित्वों को निभाए।” कोर्ट ने यह भी उल्लेख किया कि धारा 125 सीआरपीसी का उद्देश्य सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना और महिलाओं को बेघर होने और आर्थिक तंगी से बचाना है।

याचिकाकर्ता ने दावा किया कि उसने गौरव के साथ वैवाहिक जीवन जिया और उसके बच्चों को भी गौरव ने स्वीकार किया था। उसने आधार कार्ड, जाति प्रमाण पत्र, बैंक खाता और निवास प्रमाण पत्र में गौरव का नाम अपने पति के रूप में दर्ज कराया था। इसके अलावा, एक पंचायत भी बुलाई गई थी, जिसमें वैवाहिक विवाद को सुलझाने की कोशिश की गई, लेकिन कोई समाधान नहीं निकला। दूसरी ओर, गौरव ने इन दावों का खंडन करते हुए कहा कि उसने याचिकाकर्ता से कभी विवाह नहीं किया और वह केवल मानवीय आधार पर अपने बड़े भाई की विधवा और उसके बच्चों की जिम्मेदारी ले रहा था। गौरव ने यह भी दावा किया कि उसका विवाह संगीत यादव से 2017 में हुआ था और वह उसी के साथ रहता है।
हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को गलत ठहराते हुए कहा कि उसने याचिकाकर्ता के विवाह को साबित करने के लिए सख्त सबूतों की मांग करके अति तकनीकी दृष्टिकोण अपनाया। कोर्ट ने पुलिस जांच के निष्कर्षों पर भी गौर किया, जिसमें गौरव और संगीत यादव ने स्वीकार किया था कि गौरव ने 2020 में याचिकाकर्ता से दूसरा विवाह किया था। जांच में यह भी सामने आया कि संगीत यादव का पहला विवाह रंजीत यादव से हुआ था, जिसका तलाक नहीं हुआ था। इस आधार पर, कोर्ट ने माना कि याचिकाकर्ता का गौरव के साथ विवाह संगीत यादव के दावे से अधिक मजबूत है।
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा: “यह तथ्य प्रथम दृष्टया साबित होता है कि प्रतिवादी नंबर 2 ने 2020 में याचिकाकर्ता नंबर 1 के साथ दूसरा विवाह किया था, जिसे दोनों परिवारों की सहमति प्राप्त थी।” कोर्ट ने यह भी माना कि याचिकाकर्ता के पास कोई आय का स्रोत नहीं है और वह अपने दो नाबालिग बच्चों की जिम्मेदारी वहन कर रही है। इसलिए, उसे गुजारा भत्ता देने का आदेश देना सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप है।
हाईकोर्ट ने निचली अदालत को निर्देश दिया कि वह मामले की दोबारा सुनवाई करे और याचिकाकर्ता को गौरव की पत्नी मानते हुए गुजारा भत्ता तय करे। साथ ही, कोर्ट ने गौरव को आदेश दिया कि वह याचिकाकर्ता को 8,000 रुपये मासिक अंतरिम गुजारा भत्ता दे, जो मामले के अंतिम निर्णय तक लागू रहेगा। यह फैसला उन महिलाओं के लिए एक मिसाल है, जो लंबे समय तक पति-पत्नी के रूप में रहने के बाद भी कानूनी औपचारिकताओं के अभाव में गुजारा भत्ता से वंचित रह जाती हैं।
इस मामले में याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता अशोक कुमार यादव और प्रेम शंकर ने पैरवी की, जबकि विपक्षी पक्ष की ओर से सरकारी अधिवक्ता और केदार नाथ मिश्रा ने दलीलें पेश कीं। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि सामाजिक कल्याण के लिए बनाए गए कानूनों की व्याख्या उदार और लाभकारी दृष्टिकोण से की जानी चाहिए। यह फैसला महिलाओं के अधिकारों और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
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