CEC को हटाने की प्रक्रिया: संविधान में क्या है नियम? कैसे पूरा होगा महाभियोग का प्रोसेस?

Published on: 18-08-2025
चुनाव आयोग

हाल ही में इंडिया गठबंधन द्वारा चुनाव आयोग पर मतदाता सूची में अनियमितताओं (vote chori) के आरोप के बाद CEC मुख्य चुनाव आयुक्त के विरुद्ध महाभियोग लाने की चर्चाएँ जोर पकड़ रही है। विपक्षी दल, खासतौर पर कांग्रेस मुख्य चुनाव आयुक्त को पद से हटाने का प्रस्ताव ला सकती है. हालांकि अब तक इसकी औपचारिक पुष्टि नहीं हुई है. भारत का चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है, जो निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है। इसकी कमान मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) के हाथों में होती है, जिसकी नियुक्ति और हटाने की प्रक्रिया भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 में वर्णित है। वर्तमान में ज्ञानेश कुमार, 1988 बैच के आईएएस अधिकारी, फरवरी 2025 से सीईसी के रूप में कार्यरत हैं। महाभियोग एक गंभीर और दुर्लभ प्रक्रिया है, जो केवल सिद्ध कदाचार या अक्षमता के आधार पर शुरू हो सकती है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324(1) के तहत, चुनाव आयोग में सीईसी और अन्य चुनाव आयुक्त शामिल होते हैं, जिन्हें राष्ट्रपति नियुक्त करते हैं। अनुच्छेद 324(5) स्पष्ट करता है कि सीईसी को केवल सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की तरह ही हटाया जा सकता है, अर्थात् संसद के दोनों सदनों, लोकसभा और राज्यसभा, में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा शर्तें और पदावधि) अधिनियम, 2023 ने नियुक्ति प्रक्रिया को संशोधित किया, जिसमें अब एक समिति शामिल है, जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और एक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री होते हैं। यह संशोधन सर्वोच्च न्यायालय के अनूप बरनवाल बनाम भारत संघ (2023) मामले के फैसले से प्रेरित था, जिसमें मुख्य न्यायाधीश को समिति में शामिल करने का सुझाव दिया गया था। हालांकि, हटाने का प्रावधान अपरिवर्तित रहा, और सीईसी का कार्यकाल 6 वर्ष या 65 वर्ष की आयु तक निर्धारित है। हटाने के लिए सिद्ध कदाचार (जैसे पक्षपात, भ्रष्टाचार या संवैधानिक कर्तव्यों का उल्लंघन) या अक्षमता (स्वास्थ्य या कार्यक्षमता से संबंधित) का आधार होना चाहिए।

महाभियोग की प्रक्रिया जटिल और पारदर्शी है। इसे शुरू करने के लिए, संसद का कोई भी सदस्य लोकसभा या राज्यसभा में प्रस्ताव पेश कर सकता है, जिसके लिए लोकसभा में कम से कम 100 या राज्यसभा में 50 सदस्यों के हस्ताक्षर आवश्यक हैं। प्रस्ताव को सदन के स्पीकर या सभापति द्वारा स्वीकार किया जाता है, जिसके बाद एक जांच समिति गठित होती है। यह समिति आरोपों की निष्पक्ष जांच करती है और अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करती है। यदि समिति आरोपों को सिद्ध करती है, तो दोनों सदनों में प्रस्ताव पर बहस होती है। प्रस्ताव को पास करने के लिए प्रत्येक सदन में कुल सदस्यता का साधारण बहुमत और उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों का दो-तिहाई बहुमत आवश्यक है। सफल होने पर, प्रस्ताव राष्ट्रपति को भेजा जाता है, जो सीईसी को हटाने का आदेश जारी करते हैं। यह प्रक्रिया सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की हटाने की प्रक्रिया के समान है, जो संस्था की स्वतंत्रता और जवाबदेही सुनिश्चित करती है। इतिहास में सीईसी पर महाभियोग का कोई उदाहरण नहीं है, क्योंकि इसके लिए आवश्यक बहुमत और ठोस सबूत जुटाना अत्यंत कठिन है।

वर्तमान में सीईसी ज्ञानेश कुमार के खिलाफ विपक्षी दलों, विशेष रूप से इंडिया गठबंधन, ने महाभियोग की चर्चा तेज कर दी है। यह विवाद मतदाता सूची में कथित अनियमितताओं से उपजा है, जिसमें कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कर्नाटक, महाराष्ट्र और हरियाणा में लाखों मतदाताओं के नाम हटाने के आरोप लगाए हैं। उनका दावा है कि यह कार्य सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को लाभ पहुंचाने के लिए किया गया। सीईसी ने इन आरोपों को ‘बेबुनियाद’ बताते हुए राहुल गांधी से शपथ-पत्र या माफी की मांग की है। विपक्ष इसे चुनाव आयोग की पक्षपातपूर्णता का उदाहरण मान रहा है और संसद में विरोध प्रदर्शन कर रहा है। 18 अगस्त 2025 को इंडिया गठबंधन की बैठक में इस प्रस्ताव पर सैद्धांतिक सहमति बनी, और कांग्रेस सांसद सैयद नसीर हुसैन ने कहा कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए सभी संवैधानिक उपाय अपनाए जाएंगे। सोशल मीडिया पर भी यह मुद्दा चर्चा में है, जहां विपक्ष इसे ‘ऐतिहासिक कदम’ बता रहा है, जबकि भाजपा इसे ‘राजनीतिक स्टंट’ करार दे रही है। भाजपा सांसद संबित पात्रा ने विपक्ष पर संवैधानिक संस्थाओं का अपमान करने का आरोप लगाया।

महाभियोग की संभावना कई कारकों पर निर्भर करती है। पहला, इंडिया गठबंधन के पास लोकसभा (543 सीटें) और राज्यसभा (245 सीटें) में दो-तिहाई बहुमत नहीं है, जो प्रस्ताव की सफलता के लिए अनिवार्य है। वर्तमान में, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के पास बहुमत है, जिसके कारण प्रस्ताव के असफल होने की संभावना अधिक है। दूसरा, विपक्ष को कदाचार के ठोस सबूत प्रस्तुत करने होंगे, जो जांच समिति और संभावित रूप से सर्वोच्च न्यायालय की कसौटी पर खरे उतरें। तीसरा, यह कदम चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर व्यापक बहस छेड़ सकता है, और विपक्ष इसे 2023 अधिनियम द्वारा आयोग की स्वतंत्रता कमजोर होने के सबूत के रूप में पेश कर रहा है। यदि प्रस्ताव विफल होता है, तो यह विपक्ष की एकता को मजबूत कर सकता है, लेकिन साथ ही उनकी विश्वसनीयता को राजनीतिक नुकसान भी हो सकता है। इसके अलावा, यह मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच सकता है, जहां आयोग की स्वायत्तता और सरकार की भूमिका की समीक्षा हो सकती है।

ऐतिहासिक रूप से, अरुण गोयल जैसे चुनाव आयुक्तों के इस्तीफे पर विवाद हुए हैं, लेकिन महाभियोग की नौबत कभी नहीं आई। यह घटना भारतीय लोकतंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण परीक्षण है, जहां संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता और जवाबदेही का सवाल अहम है। विपक्ष को अपने आरोपों को मजबूत करने के लिए ठोस सबूत और कानूनी रास्ते अपनाने होंगे। यह प्रक्रिया न केवल चुनाव आयोग की विश्वसनीयता को प्रभावित कर सकती है, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में जनता के विश्वास को भी आकार दे सकती है। यह स्थिति लोकतंत्र की मजबूती और संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता के महत्व को रेखांकित करती है, जो भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में निष्पक्ष शासन की आधारशिला है।

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