Freedom of Press | पत्रकारिता राजद्रोह नहीं : सुप्रीम कोर्ट ने दी राहत, कहा- लेखन प्रथम दृष्टया अपराध नहीं

Published on: 13-08-2025
प्रेस फ्रीडम

नई दिल्ली: Freedom of Press यानी पत्रकारिता की स्वतंत्रता और राजद्रोह कानून के दुरुपयोग पर बहस एक बार फिर सुर्खियों में है। सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक महत्वपूर्ण टिप्पणी में स्पष्ट किया कि किसी पत्रकार का लेख या वीडियो, पहली नजर में, देश की एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाला कृत्य नहीं माना जा सकता। यह टिप्पणी भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 152 के संदर्भ में आई है, जो भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124ए यानी राजद्रोह कानून की जगह लेती है।

यह मामला न्यूज पोर्टल ‘द वायर’ और उसके संपादक सिद्धार्थ वरदराजन से जुड़ा है। असम पुलिस ने उनके खिलाफ ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमानों के कथित नुकसान पर आधारित एक लेख के लिए एफआईआर दर्ज की थी। इस लेख में इंडोनेशिया में भारत के रक्षा सूत्रों के हवाले से जानकारी दी गई थी।

सुप्रीम कोर्ट की पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति जयमाल्या बागची शामिल थे, ने वरदराजन और ‘फाउंडेशन ऑफ इंडिपेंडेंट जर्नलिज्म’ के सदस्यों को गिरफ्तारी से अंतरिम सुरक्षा प्रदान की। अदालत ने सवाल उठाया कि क्या एक पत्रकार को केवल लेख लिखने या रिपोर्टिंग के लिए मुकदमे का सामना करना चाहिए और क्या ऐसी सामग्री वास्तव में राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा हो सकती है।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि याचिका जवाबदेही से बचने की कोशिश है। हालांकि, न्यायमूर्ति धूलिया ने स्पष्ट किया कि पत्रकारों को कोई विशेष दर्जा नहीं दिया जा रहा, बल्कि एक लेख लिखना हथियारों की तस्करी जैसे गंभीर अपराध के बराबर नहीं है।

याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता नित्या रामकृष्णन ने तर्क दिया कि धारा 152 अस्पष्ट है और पुराने राजद्रोह कानून की तरह इसके दुरुपयोग की आशंका है। अदालत ने इस पर कहा कि किसी कानून का संभावित दुरुपयोग इसे असंवैधानिक ठहराने का आधार नहीं हो सकता।

न्यायमूर्ति बागची ने जोर देकर कहा कि अच्छे कानूनों का भी दुरुपयोग हो सकता है, लेकिन उनकी संवैधानिकता का मूल्यांकन विधायी इरादे के आधार पर होना चाहिए, न कि उनके क्रियान्वयन से। अदालत ने इस याचिका को एस.जी. वोम्बटकेरे की लंबित याचिका के साथ जोड़ दिया, जिन्होंने पहले धारा 124ए को चुनौती दी थी और अब धारा 152 की वैधता पर सवाल उठाया है।

29 जून को ‘द वायर’ ने “भारतीय वायुसेना ने राजनीतिक नेतृत्व की बाध्यताओं के कारण पाकिस्तान को लड़ाकू विमान गंवाए: भारतीय रक्षा अताशे” शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया था। याचिका में दावा किया गया कि यह लेख इंडोनेशिया के एक विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित सेमिनार की तथ्यात्मक रिपोर्ट थी, जिसमें भारत के रक्षा कर्मियों, जिसमें इंडोनेशिया में भारत के सैन्य अताशे शामिल थे, के बयानों को शामिल किया गया था।

इसमें ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान खोए गए भारतीय वायुसेना के जेट विमानों और सैन्य रणनीति पर चर्चा की गई थी। याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया कि शिकायतकर्ता असम में सत्तारूढ़ पार्टी का सदस्य और पदाधिकारी है, और एफआईआर पत्रकारों को निशाना बनाने का जानबूझकर किया गया प्रयास है।

यह फैसला पत्रकारिता की स्वतंत्रता के लिए राहत लेकर आया है, खासकर ऐसे समय में जब राजद्रोह जैसे कानूनों का उपयोग असहमति की आवाजों को दबाने के लिए किया जा रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला बीएनएस की धारा 152 के दुरुपयोग पर कुछ हद तक लगाम लगा सकता है, हालांकि अंतिम निर्णय लंबित याचिकाओं पर निर्भर करेगा।

यह मामला इस बात की याद दिलाता है कि लोकतंत्र में पत्रकारिता अपराध नहीं बल्कि निगरानी का एक महत्वपूर्ण माध्यम है ।

विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2025 (World Press Freedom Index 2025) में, पेरिस स्थित अंतरराष्ट्रीय NGO रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (RWB) ने भारत को 180 देशों में 151वीं रैंक दी है। यह रैंकिंग पिछले वर्ष (2024) की 159वीं रैंक से बेहतर है, जो प्रेस स्वतंत्रता में मामूली सुधार दर्शाती है। हालांकि, भारत की स्थिति अभी भी “बहुत गंभीर” श्रेणी में है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत में मीडिया को फंडिंग की कमी और राजनीतिक नेताओं व बिजनेसमैन द्वारा सशर्त फंडिंग के कारण स्वतंत्रता पर असर पड़ता है। नॉर्वे इस सूचकांक में पहले स्थान पर है, जबकि इरीट्रिया सबसे निचले पायदान पर है।

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